
👉 *इष्ट की उपासना का मर्म* *दिन ढल रहा था। रात तथा दिन फिर से बिछुड़ जाने को कुछ क्षणों के लिये एक दूसरे में विलीन हो गये थे। रम्य वनस्थली में एक पर्णकुटी में से कुछ धुआँ सा उठ रहा था। कुटीर में निवास करने वाले दो ऋषि- शनक तथा अभिप्रतारी अपना भोजन तैयार कर रहे थे। वनवासियों का भोजन ही क्या? कुछ फल तोड़ लाये-कुछ दूध से काम चल गया-हाँ, कन्द-मूलों को अवश्य आँच में पकाना होता था। भोजन लगभग तैयार हो चुका था और उसे कदलीपत्रों पर परोसा जा रहा था।* तभी बाहर किसी आगन्तुक के आने का शब्द हुआ। दोनों ने जानने का प्रयत्न किया। बाहर एक युवा ब्रह्मचारी खड़ा था। *ऋषि ने प्रश्न किया- 'कहो वत्स! क्या चाहिए?' युवक विनम्र वाणी में बोला- 'आज प्रातः से अभी तक मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका है। मैं क्षुधा से व्याकुल हो रहा हूँ। यदि कुछ भोजन मिल जाता, तो बड़ी दया होती।'* कुटीर निवासी कहने को वनवासी थे, हृदय उनका सामान्य गृहस्थों से भी कहीं अधिक संकीर्ण था। मात्र सिद्धान्तवादी थे वे- व्यावहारिक वेदाँती नहीं थे। सो रूखे स्वर में कहा- 'भाई तुम किसी गृहस्थ का घर देखो। हम तो वनवासी हैं। अपने ...