जाने सैनिक से बाबा बने हरभजन सिंह के बारे में


सिक्किम से सटी भारत-चीन सीमा पर एक सैनिक ऐसा भी है जो मौत के 48 साल बीत जाने के बाद आज भी सरहद की रक्षा कर रहा है।  जी हां, सुनने में बात ज़रूर हैरत में डालने वाली है लेकिन यह सच है।  

चौंकाने वाली बात तो यह है कि इस मृत सैनिक की याद में एक मंदिर भी बनाया गया है जो लोगों के लिए आस्था का केंद्र बन गया है और यहां रोज़ाना बड़ी संख्या में लोग इनके दर्शन के लिए दूर-दूर से पहुंचते हैं।  

यहां बात हो रही है सिक्किम की राजधानी गंगटोक में जेलेप्ला दर्रे और नाथुला दर्रे के बीच बने 'बाबा हरभजन सिंह' मंदिर की। लगभग 13 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर में बाबा हरभजन सिंह की एक फोटो और उनका सामान रखा हुआ है।



दरअसल, बाबा हरभजन सिंह कोई साधू-महात्मा नहीं थे जिनपर यहां मंदिर बनाया गया है, बल्कि हरभजन सिंह भारतीय सेना के जवान हुआ करते थे जिनकी एक हादसे में मौत हो गई थी।  

3 अगस्त, 1941 को पंजाब के कपूरथला में जन्मे इस सिपाही की मौत 11 सितम्बर,1968 को हुई थी।  माना जाता है कि यह सैनिक यह जांबाज़ सैनिक अपनी मौत के बाद आज भी देश की सरहद की रक्षा कर रहा है। इस सिपाही को अब लोग 'कैप्टन बाबा हरभजन सिंह' के नाम से पुकारते हैं। 

जानकारी के मुताबिक़ हरभजन सिंह की मौत नाथूला दर्रे में गहरी खाई में गिरने से हो गई थी। मान्यता है कि तब से लेकर आज तक यह सिपाही किसी न किसी तरह से सरहद की रक्षा कर रहा है। 

ख़ास बात यह है कि मान्यता अब इतनी बढ़ गई है कि भारत ही नहीं बल्कि चीन के सैनिक भी इस बात को मानते हैं कि सरहद पर एक ऐसा सैनिक है जो मौत के बाद भी यहां गश्त कर रखवाली करता है।  बताया यह भी जाता है कि चीनी सैनिकों ने बाकायदा हरभजन सिंह को मरने के बाद घोड़े पर सवार होकर सरहदों की गश्त करते हुए देखा है।



जाने सैनिक से बाबा बने हरभजन सिंह के बारे में 
कपूरथला में जन्मे हरभजन सिंह ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव में रहकर ही हासिल की थी। मार्च 1955 में उन्होंने डीएवी हाई स्कूल, पट्टी से दसवीं कक्षा पास की। जून, 1956 में हरभजन सिंह ने अमृतसर में बतौर सैनिक दाखिल हुए और सिग्नल कोर में शामिल हो गए। 

30 जून,1965 को उन्हें एक कमीशन प्रदान की गई और वे '14 राजपूत रेजिमेंट' में तैनात हुए। वर्ष 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उन्होंने अपनी यूनिट के लिए महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इसके बाद उनका स्थानांतरण '18 राजपूत रेजिमेंट' के लिए हो गया।



ऐसे हुआ मौत से मिलन 
वर्ष 1968 में कैप्टन हरभजन सिंह '23वीं पंजाब रेजिमेंट' के साथ पूर्वी सिक्किम में तैनात थे। 4 अक्टूबर, 1968 को खच्चरों का एक काफिला लेकर वे पूर्वी सिक्किम के तुकुला से डोंगचुई की ओर जा रहे थे। इसी दौरान पांव फिसलने के कारण एक नाले में गिरने से उनकी मौत हो गई। 

पानी का तेज बहाव होने के कारण उनका पार्थिव शरीर बहकर घटना स्थल से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर जा पहुंचा। जब भारतीय सेना ने बाबा हरभजन सिंह की खोज-खबर लेनी शुरू की गई, तो तीन दिन बाद उनका पार्थिव शरीर मिला।

ये है मान्यता 
ऐसी मान्यता है कि हरभजन सिंह ने अपने साथी सिपाही प्रीतम सिंह को सपने में आकर अपनी मौत की जानकारी दी और बताया कि उनका शव कहां पड़ा है। उन्होंने प्रीतम सिंह से उनकी समाधि बनाये जाने की भी इच्छा ज़ाहिर की। 

पहले प्रीतम सिंह की बात का किसी ने विश्वास नहीं किया, लेकिन जब उनका शव उसी स्थल पर मिला, जहां उन्होंने बताया था तो सेना के अधिकारियों को उनकी बात पर विश्वास हो गया। सेना के अधिकारियों ने उनकी 'छोक्या छो' नामक स्थान पर समाधि बनवाई।




मृत्युपरांत बाबा हरभजन सिंह अपने साथियों को नाथुला के आस-पास चीन की सैनिक गतिविधियों की जानकारी सपनों में देते, जो हमेशा सत्य होती थी। तभी से बाबा हरभजन सिंह का मृत शरीर भारतीय सेना की सेवा कर रहा है और इसी तथ्य के मद्देनज़र उनको मृत्युपरांत शरीर भारतीय सेना की सेवा में रखा गया है। 



उनकी समाधि को 9 किलोमीटर नीचे नवम्बर, 1982 को भारतीय सेना के द्वारा बनवाया गया। मान्यता यह है कि यहां रखे पानी की बोतल में चमत्कारिक गुण आ जाते हैं और इसका 21 दिन सेवन करने से श्रद्धालु अपने रोगों से छुटकारा पा जाते है।

आज भी करते हैं देशसेवा
बीते 48 सालों में बाबा हरभजन सिंह की पदोन्नति सिपाही से कैप्टन की हो गई है। आस्था का आलम ये है कि जब भी भारत-चीन की सैन्य बैठक नाथुला में होती है तो उनके लिए एक खाली कुर्सी रखी जाती है। इसी आस्था के चलते भारतीय सेना उनको सेवारत मानते हुए हर साल 15 सितम्बर से 15 नवम्बर तक की छुट्टी मंजूर करती है और बड़ी श्रद्धा के साथ स्थानीय लोग एवं सैनिक एक जुलुस के रूप में उनकी वर्दी, टोपी, जूते एवं साल भर का वेतन, दो सैनिकों के साथ, सैनिक गाड़ी में नाथुला से न्यू जलपाईगुड़ी रेलवे स्टेशन तक लाते हैं। 



वहां से डिब्रूगढ़-अमृतसर एक्सप्रेस से उन्हें जालंधर (पंजाब) लाया जाता है। यहां से सेना की गाड़ी उन्हें गांव में उनके घर तक छोडऩे जाती है। वहां सब कुछ उनकी माता जी को सौंप दिया जाता है। फिर उसी ट्रेन से उसी आस्था एवं सम्मान के साथ उनको समाधि स्थल, नाथुला लाया जाता है।

कुछ लोग इस आयोजान को अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला मानते थे, इसलिए उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, क्योंकि सेना में किसी भी प्रकार के अंधविश्वास की मनाही होती है। लिहाज़ा सेना ने बाबा हरभजन सिंह को छुट्टी पर भेजना बंद कर दिया। 



अब बाबा साल के बारह महीने ड्यूटी पर रहते है। मंदिर में बाबा का एक कमरा भी है, जिसमे बाकायदा हर रोज़ सफाई करके बिस्तर लगाया जाता है। 

बाबा की सेना की वर्दी और जूते रखे जाते हैं। कहा तो यहां तक ये भी जाता है कि रोज़ाना साफ़-सफाई होने के बाद भी उनके जूतों में कीचड़ और चद्दर पर सलवटे पाई जाती हैं।

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